पृथ्वी का सुरक्षा कवच है ओजोन परत
अनियंत्रित औद्योगिकीकरण, प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन एवं विकास की तीव्र लालसा के कारण प्रकृति के सर्वश्रेष्ठ जीव मानव ने अपनी इन सभी गैर औचित्यपूर्ण गतिविधियों से न केवल मानवीय जीवन को खतरे में डाल दिया है वरन् प्रकृति के अस्तित्व पर भी संकट उत्पन्न कर दिया है। भौतिक प्रगति की चाह में मनुष्य पर्यावरण संरक्षण एवं प्रकृति के महत्व की लगातार अनदेखी करता चला आ रहा है, जिसका दुष्परिणाम मानवीय जाति को वैश्विक महामारियों एवं प्राकृतिक आपदा के रुप में झेलना पड़ता है। कोविड – 19 नामक वैश्विक महामारी के कारण विश्व बिरादरी के सम्मुख उपजा संकट इसका एक हालिया उदाहरण है। निस्संदेह यह बात सत्य है कि संपूर्ण मानव जाति अपने प्रगतिशील स्वभाव के कारण शीघ्र ही इस महामारी से मुक्त हो जाएगी परंतु अगर वैश्विक समुदाय ने महामारी एवं बुरे समय से जरा भी सीखने का प्रयत्न न किया और अपनी उसी पुरानी लीक पर चलना जारी रखा तो भविष्य में इससे भी भयावह संकट का सामना करना पड़ सकता है। मानवीय गतिविधियों के विभिन्न प्रदूषित कारकों के कारण संपूर्ण विश्व का पर्यावरण संतुलन लगातार बिगड़ता जा रहा है। औधोगिक दृष्टि से संपन्न विकसित देशों की पर्यावरण असंतुलन में मुख्य भूमिका रही है। वहीं विकासशील देशों की स्थिति भी पर्यावरण संरक्षण की दिशा में उचित नहीं ठहरायी जा सकती है।
पर्यावरण के कुछ घटक ऐसे हैं जिन पर पृथ्वी पर रहने वाले प्रत्येक जीव की समान भागीदारी है। इन्हें विश्व पर्यावरण के “सार्वभौमिक साझेदारी वाले घटक” अथवा “ग्लोबल काॅमन्स” के नाम से जाना जाता है। इनमें पहला घटक पर्यावरण है और दूसरा है ओजोन परत। वर्तमान समय में पर्यावरण के इन ग्लोबल काॅमन्स की स्थिति चिन्तनीय है जिसके कारण संपूर्ण विश्व का चिन्तनीय होना स्वाभाविक है।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का मानना था कि नैतिकता के बिना विज्ञान की कोई अहमियत नहीं है। वर्तमान में मानव समाज विज्ञान के क्षेत्र में उन्नति पथ पर अग्रसर है परंतु विज्ञान का नैतिकता से कोई खास संबंध न होने के कारण ओजोन परत के चारों ओर नाभिकीय अस्त्रों से सर्वसंहारी महायुद्ध की विभीषिका मंडरा रही है। वहीं ओजोन परत के क्षत – विक्षत हो जाने के कारण पृथ्वी पर जीवधारियों के नष्ट हो जाने का खतरा उत्पन्न हो गया है क्योंकि अगर वायुमण्डल में ओजोन परत की उपस्थिति नहीं होती तो अंतरिक्ष से पृथ्वी की ओर आने वाली सूर्य की पराबैंगनी किरणें पृथ्वी पर जीवन को असंभव बना देती। यह दुखद स्थिति है कि पृथ्वी पर जीवन को चलायमान रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली इस परत का घोर मानवीय उपेक्षा के कारण लगातार ह्रास होता जा रहा है। 1985 में अनुसंधानकर्ताओं ने अंटार्कटिका के ऊपर ओजोन परत में संयुक्त राज्य अमेरिका के आकार के बराबर एक छिद्र की खोज की। ओजोन परत की मोटाई डाबसन इकाई में मापी जाती है। एक डाबसन इकाई मान आने का अर्थ है कि ओजोन की परत 0.01 मिमी मोटी है।
ओजोन आक्सीजन के तीन परमाणुओं से मिलकर बनती है। ओजोन परत पृथ्वी की सतह से करीब 15 से 30 किमी की ऊंचाई पर समतापमण्डल में अवस्थित है। ओजोन परत सूर्य की पराबैंगनी किरणों से जीवधारियों की सुरक्षा करती है क्योंकि इन किरणों की अधिकता से कैंसर, चर्मरोग इत्यादि बीमारियों में वृद्धि की संभावना बनी रहती है। पृथ्वी के वातावरण को संतुलित बनाए रखने में भी ओजोन परत की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। ओजोन परत के कारण वातावरण में उतार – चढ़ाव आते रहते हैं, परिणामस्वरूप वायु प्रवाह, बादलों का बनना, वर्षा, तूफान तथा कुहासा आदि का निर्माण होता है। ओजोन परत की क्षति के कारण वायुमण्डल में अस्थिरता उत्पन्न हो जाती है जिससे पृथ्वी का वातावरण बहुत विक्षुब्ध हो जाता है तथा मौसम का असंतुलन बढ जाता है जिससे पृथ्वी की उत्पादन एवं प्रजनन की गति बहुत कुण्ठित हो जाती है।
ओजोन के ह्रास में क्लोरोफ्लोरोकार्बन, नाइट्रोजन आक्साइड एवं हाइड्रोकार्बन मुख्य उत्तरदायी कारक है। क्लोरोफ्लोरोकार्बन का प्रयोग वातानुकूलक, रेफ्रिजरेटरों एवं अग्निशमक यंत्रों में किया जाता है। जेट इंजन, मोटर वाहन, नाइट्रोजन उर्वरक एवं औधोगिक प्रक्रिया क्लोरोफ्लोरोकार्बन एवं नाइट्रोजन आक्साइड के लिए उत्तरदायी है। सुपरसोनिक विमान भी बड़े पैमाने पर ओजोन परत में व्यवधान उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी है। उल्लेखनीय है कि ओजोन परत में 1 प्रतिशत की कमी पृथ्वी पर सूर्य से आने वाली पराबैंगनी विकिरण को 2 प्रतिशत तक बढा देती है।
ओजोन सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों को अवशोषित कर लेती है जिसके कारण समतापमण्डल का तापमान बढ़ जाता है। ओजोन परत के ह्रास के कारण सूर्य से निकलने वाली घातक पराबैंगनी किरणें अत्यंत प्रभावी हो जाती हैं जिससे यह प्रतिरोधक क्षमता को घटाकर रोगों के प्रति संवेदनशीलता को बढा देती है। इन घातक किरणों के कारण मानव के डी. एन. ए. एवं आनुवंशिकता के प्रभावित होने का भी खतरा बना रहता है। पराबैंगनी किरणें अनेक फल एवं सब्जियों और पौधों की वृद्धि को प्रभावित कर सकती है। वहीं जीवों में उत्परिवर्तन की संभावना भी बहुत अधिक बढ़ जाती है।
गौरतलब है कि जब पृथ्वी पर जरूरत से अधिक पराबैंगनी किरणें पहुंचती है तो समुद्री खाद्य जाल के लिए जैविक रूप से महत्वपूर्ण “प्लेंक्टन” की गतिशीलता में अंतर आ जाता है।
रोचक तथ्य यह है कि ओजोन छिद्र का सर्वाधिक निर्माण अंटार्कटिका के ऊपर होता है न कि उन देशों के ऊपर जो अत्यधिक क्लोरोफ्लोरोकार्बन का उत्सर्जन करते है। इसका कारण यह है कि क्लोरोफ्लोरोकार्बन गैस समता तक पहुँचने में 2 – 7 वर्ष का समय लेती है एवं वायु द्वारा उनको चारों ओर फैला दिया जाता है। बर्फीली पवनें, समतापमण्डलीय बादल एवं 6 माह की रात्रि ये सभी भौगोलिक परिस्थितियाँ क्लोरीन को क्लोरोफ्लोरोकार्बन से मुक्त होने में उचित स्थिति प्रदान करते है। वहीं दक्षिणी ध्रुव की ओर वाताग्र उत्तरी ध्रुव की अपेक्षा अधिक प्रभावी होता है।
यह महज एक सुखद संयोग ही है कि जिस वर्ष अंटार्कटिक ओजोन छिद्र की घोषणा हुई उसी वर्ष अर्थात 1985 में ओजोन ह्रास को लेकर प्रथम बार वैश्विक सम्मेलन आस्ट्रिया की राजधानी वियना में आयोजित किया गया जिसे “वियना कन्वेंशन” के नाम से जाना गया। जनवरी, 1995 में संयुक्त राष्ट्र की आम सभा द्वारा ओजोन परत संरक्षण के संदर्भ में एक प्रस्ताव पारित किया गया जिसका मुख्य उद्देश्य यह था कि प्रत्येक वर्ष सितम्बर माह की 16 तारीख को विश्व ओजोन दिवस के रूप में मनाया जाएगा ताकि विश्व जनसमुदाय का ध्यान ओजोन परत संरक्षण एवं उसका महत्व और दिन प्रतिदिन उसमें होने वाले ह्रास की ओर आकर्षित किया जा सके। इस सम्मेलन में प्रमुख क्लोरोफ्लोरोकार्बन उत्पादकों सहित 20 राष्ट्रों ने समझौते पर हस्ताक्षर किए जिससे ओजोन रिक्तिकरण पदार्थों के अंतर्राष्ट्रीय नियमों पर बातचीत के द्वारा एक रूपरेखा तैयार की गई। वर्ष 1987 में 43 राष्ट्रों के प्रतिनिधियों ने माॅन्ट्रियल प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते के परिणामस्वरूप ओजोन परत संरक्षण की दिशा में एक बड़ी सफलता प्राप्त हुई। इसके अंतर्गत विकसित देशों द्वारा क्लोरोफ्लोरोकार्बन का उत्सर्जन चरणबद्ध तरीके से कम करने का निश्चय किया गया। वहीं इस बात पर भी सहमति बनी कि क्लोरोफ्लोरोकार्बन के वैकल्पिक रसायन को इस्तेमाल करने में आने वाला अतिरिक्त खर्च विकसित द्वारा उठाया जाएगा। वर्ष 1980 में लंदन में आयोजित हेलसिंकी सम्मेलन में माॅन्ट्रियल प्रोटोकॉल में संशोधन कर उसे और प्रभावशाली बना दिया गया। इसमें प्रतिभागी राष्ट्र वर्ष 2020 तक ओजोन क्षरण के प्रमुख उत्तरदायी कारक सीएफसी और हेलोंस का उपयोग पूरी तरह बंद करने के लिए तैयार हो गए।
यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि विकासशील देश वर्ष 2030 पूर्ण रूप से क्लोरोफ्लोरोकार्बन का उत्पादन एवं उपयोग बंद कर देंगे परंतु उसके बाद भी 0.5 प्रतिशत इस्तेमाल शीतलक एवं वातानुकूलन उपकरणों में किया जाता रहेगा। वर्तमान समय में ओजोन परत के लिए अत्यंत हानिकारक क्लोरोफ्लोरोकार्बन को हाइड्रो – क्लोरोफ्लोरोकार्बन के द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया गया है जो कि ओजोन परत संरक्षण के लिए उपयोगी साबित होगा। यधपि हाइड्रो – क्लोरोफ्लोरोकार्बन भी पूरी तरह चिंतामुक्त नहीं है क्योंकि यह शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैसें है। माॅन्ट्रियल प्रोटोकॉल एवं उसके संशोधित स्वरूप को लागू करने के बाद से CFC के उत्सर्जन में कमी आयी है। मौटे तौर पर यह अनुमान लगाया जाता है कि ओजोन परत की क्षतिपूर्ति 1980 के स्तर तक वर्ष 2068 तक ही हो पाएगी।
यह सर्वविदित है कि ओजोन परत पृथ्वी पर जीवधारियों के लिए सुरक्षा कवच की भूमिका निभाती है। अत: आवश्यकता इस बात की है कि ओजोन परत संरक्षण की दिशा में उचित वैश्विक कार्यक्रम क्रियान्वित किए जाने चाहिए। इसके लिए विकसित एवं विकासशील देशों को एकजुट होने की आवश्यकता है। बिना किसी समान भागीदारी के इस कार्यक्रम को सफल बनाना असंभव होगा। वहीं सभी राष्ट्रों द्वारा अपने नागरिकों के अंदर पर्यावरणीय चेतना उत्पन्न की जानी चाहिए। सभी राष्ट्रों की सरकारों द्वारा स्थानीय स्तर पर वातावरण की शुद्धता के लिए वृक्षारोपण कार्यक्रम को बढ़ावा देना, कार्बन उत्सर्जन को कम करना, स्वच्छ इंधन के उपयोग को बढ़ावा देना एवं जहां तक संभव हो पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले ऊर्जा के स्रोतों का न्यूनतम इस्तेमाल करना, पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले औधोगिक कल कारखानों के लिए न केवल कड़े मापदण्ड तय करना बल्कि उन्हें सख्ती से क्रियान्वित भी किया जाना इत्यादि पर्यावरण हितैषी कार्यक्रम सुनिश्चित किए जाने चाहिए ताकि ओजोन ह्रास को कम किया जा सके। दूसरी ओर वनोन्मूलन के लिए प्रमुख रूप से उत्तरदायी गैर कानूनी वृक्षों की कटाई पर भी त्वरित कार्रवाई सुनिश्चित की जानी चाहिए क्योंकि आक्सीजन और ओजोन दोनों एक-दूसरे के पूरक है अर्थात ओजोन परत की मोटाई में वृद्धि या ह्रास संपूर्ण जीवधारियों के जीवन स्रोत आक्सीजन की वृद्धि या कमी पर निर्भर करती है।
ओजोन परत पृथ्वी पर संपूर्ण जीवधारियों के जीवन का आधार है। इसकी अवहेलना करना पृथ्वी पर जीवन को खतरे में डालने के समान होगा। वर्तमान में आवश्यकता इस बात की है कि पर्यावरण एवं ओजोन परत संरक्षण के लिए विश्व बिरादरी मुखर हो ताकि भविष्य में किसी भयावह संकट को घटित होने से रोका जा सकें।
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.)