Girishwar Misra

भारतीय भाषाओं में है आत्मनिर्भरता का मूल

Girishwar Misra
प्रो. गिरीश्वर मिश्र, पूर्व कुलपति
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय

 भाषा संवाद में जन्म लेती है और उसी में पल बढ कर समाज में संवाद को रूप से संभव बनाती है. संवाद के बिना समाज भी नहीं बन सकता न उसका काम ही चल सकता है. इसलिए समाज भाषा को जीवित रखने की व्यवस्था भी करता है. इस क्रम में भाषा का शिक्षा के साथ गहरा सरोकार बन जाता है. शिक्षा पाने के दौरान  बच्चा भाषा भी सीखता है और भाषा के सहारे विभिन्न विषयों का ज्ञान भी प्राप्त करता है. उसकी योग्यता, कौशल और मानसिकता के विकास पर उसके आस-पास फैली पसरी भाषा की दुनिया का बड़ा व्यापक असर पड़ता है.

भाषा के सहारे ही सोचना संभव होता है और  भाषा में दक्षता आने पर ही जीवन के विभिन्न कार्य हो पाते हैं.इस तरह भाषा पकड़ में आने के साथ बच्चे को अपने ऊपर और अपने परिवेश पर नियंत्रण का अहसास होने लगता है. भाषा से मिलने वाली शक्ति को आत्मसात करते हुए व्यक्ति आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ता है.

मनुष्य के कृत्रिम आविष्कारों में भाषा निश्चित ही सर्वोत्कृष्ट है. वह प्रतीक (अर्थात कुछ भिन्न का विकल्प या अनुवाद ! )  होने पर भी कितनी समर्थ और शक्तिशाली व्यवस्था  है इसका सहज अनुमान  लगाया जा सकता है कि जीवन का कोई ऐसा पक्ष नहीं है जो भाषा से अछूता हो. जागरण हो या स्वप्न हम भाषा की दुनिया में ही जीते हैं. हमारी भावनाएं, हास परिहास , पीड़ा की अभिव्यक्तियों  और संवाद को संभव बनाते हुए भाषा सामाजिक जीवन को संयोजित करती है. उसी के माध्यम से हम दुनिया देखते भी हैं और रचते भी हैं. भाषा की बेजोड़ सर्जनात्मक शक्ति साहित्य , कला और संस्कृति  के अन्यान्य पक्षों में प्रतिविम्बित होती है.  इस तरह भाषा हमारे अस्तित्व की सीमाएं तंय करती चलती है. विभिन्न प्रकार के ज्ञान-विज्ञान के संकलन, संचार और प्रसार  के लिए भाषा अपरिहार्य हो चुकी है . भाषा के आलोक से ही हम काल का भी अतिक्रमण कर पाते हैं और संस्कृति का प्रवाह बना रहता है. हमारी भाषा नीति और शिक्षा के आयोजन में अभी भी जरूरी संजीदगी नहीं आ सकी है. इसका स्पष्ट कारण हमारी औपनिवेशिक  मनोवृत्ति है जो आवरण का कार्य कर रही है और जिसे हम अकाट्य नियति मान बैठे हैं. इसका परिणाम यह है कि शिक्षा के क्षेत्र में अभी भी स्वाधीनता और स्वराज्य हमसे कोसों दूर है. भाषा और संस्कृति साथ-साथ चलते हैं . यदि सोच -विचार एक भाषा में करें और शेष जीवन दूसरी भाषा में जिए  तो भाषा और जीवन दोनों में ही प्रामाणिकता  क्षतिग्रस्त होती जायगी. दुर्भाग्य से आज यही घटित हो रहा है. दोफांके का जीवन जीने के लिए हम सब अभिशप्त हो चले हैं. ऐसे में एक विभाजित मन वाले संशयग्रस्त व्यक्तित्व की रचना होती है. अपनी भाषा का उपयोग जीवंत राष्ट्रीय जीवन का आधार होता है.

oussama zaidi YmZkg7ImBAs unsplash edited

शिक्षा क्षेत्र की जड़ता और उसकी सीमित उपलब्धियों को ले कर सरकारी और गैर सरकारी प्रतिवेदनों में बार-बार चिंता जताई गई है और समस्या के विकराल होते जाने को ले कर उपज रहे आसन्न संकट की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया है.  अब बच्चे अधिक संख्या में शिक्षालय में तो जाते हैं पर वहां टिकते नहीं हैं  और जो  टिकते भी हैं तो उनका सीखना बड़ा ही कमजोर हो रहा है ( वे अपनी कक्षा के नीचे की कक्षा की योग्यता नहीं रखते). ऊपर से उनके लिए सीखने के लिए भारी भरकम पाठ्यक्रम भी  लाद दिया गया है जिसे ढोना  ( भौतिक और मानसिक दोनों ही तरह से ! )  भारी पड़ रहा है.  यह सब एक खास भाषाई संदर्भ में हो रहा है . आज की स्थिति में अंग्रेजी भाषा  नीचे से ऊपर शिक्षा के लिए मानक के रूप में प्रचलित और स्वीकृत  है जब कि  हिंदी समेत अन्य भाषाएं दोयम दर्जे की हैं. यह मान लिया गया है कि सोच-विचार और ज्ञान-विज्ञान के लिए अंग्रेजी ही माता-पिता रूप में है और उत्तम शिक्षा उसी में दी जा सकती है. इस स्थिति में हम परमुखापेक्षी होते जा रहे हैं.

 शिक्षा नीति-2020 में भारतीय भाषाओं को लेकर जो विचार दिए गए हैं उनसे कुछ आशा बंधती है. यह संतोष की बात है कि यह नीति औपचारिक दुनिया में भारतीय भाषाओं के प्रति उदासीनता और इस कारण उनके अस्तित्व पर  आ रहे संकट को रेखांकित करती है.  भाषा द्वारा  व्यक्ति और समाज की चेतना के निर्माण के महत्व को देखते हुए यह नीति इस बात को स्वीकार करती है कि भाषा का सवाल केवल शिक्षण माध्यम और विषय तक ही सीमित नहीं है. इसके साथ शिक्षा के मूल सरोकार, राष्ट्रीय एकता, अवसरों की समानता, संस्कृति के पोषण और आर्थिक विकास के प्रश्न भी गुंथे  हुए हैं. अतएव भाषा के बारे में फैसला सिर्फ बहुमत के आधार या प्रयोग की सुलभता के आधार पर नहीं लिया जा सकता.  उसमें विविधता और समावेशन का पूरा स्थान होना चाहिए. नई शिक्षा  नीति में भाषा की उपस्थिति को भाषा-शिक्षण,  शिक्षा के माध्यम के रूप में  ,  भाषा को अध्ययन विषय के रूप में और भाषा के सांस्कृतिक संदर्भ के प्रति संवेदना की दृष्टि से समझा जा सकता है.  इस नीति के अनुसार भारतीय भाषाएं पूर्व विद्यालयी स्तर से लेकर शोध के स्तर तक औपचारिक शिक्षा का माध्यम बननी चाहिए .  साथ ही भाषाओं को केवल उनके साहित्य तक सीमित न रख  इतिहास, कला, संस्कृति तथा विज्ञान जैसे विषयों को पढ़ाने का माध्यम बनाया जाना चाहिए.  इस तरह भाषा के समुचित प्रयोग  द्वारा समाज को लोकतांत्रिक और समावेशी बनाया जा सकता है.

 यह भी गौर तलब है कि प्राथमिक और स्कूली स्तर पर पाठ्यचर्या विकराल भौतिक और मानसिक बोझ का एक बड़ा कारण  विद्यार्थी के लिए स्वीकृत विषयवस्तु और उसके गृह संदर्भ में प्रयुक्त भाषाओं  के बीच विद्यमान अंतर है. भाषा का सम्बन्ध केवल साहित्य से है, इस धारणा को तोड़ कर उसकी अन्य क्षेत्रों में व्याप्ति को समझना जरूरी है. तभी अनुवाद और रटन की अध्ययन संस्कृति के स्थान पर मौलिक सृजन की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिल सकेगा . आज की प्रचलित परिपाटी में कुछ विषयों को अंग्रेजी के माध्यम से पढ़ाया जाना रूढ़ सा बना दिया  गया है.  सूचना एवं प्रौद्योगिकी, चिकित्सा एवं विधि के विषय  इसके प्रमुख उदाहरण है.  इस दिशा में भारतीय भाषाओं के माध्यम से पहल होनी चाहिए . यह भी उल्लेखनीय है कि कला, शिल्प, खेल और देशज ज्ञान को अपनी भाषा के माध्यम से ही खोजा और संरक्षित किया जा सकता है.  नीति का यह मानना है कि  ज्ञान, विज्ञान और कौशल की दृष्टि से भाषाओं को रोजगार की दुनिया में स्थापित किया जाना चाहिए.  शिक्षा नीति में प्राचीन भाषाओं के लिए आदरभाव विकसित करने और भाषा शिक्षकों की नियुक्ति को प्रोत्साहन देने का सुझाव स्वागत योग्य है.  सूचना क्रान्ति को अंग्रेजी के प्रभाव से मुक्त करते हुए भारतीय भाषाओं के माध्यम को सार्थक  बनाने हेतु भारतीय भाषाओं के शिक्षण को समर्थ बनाने के लिए विचार करना होगा . भारतीय भाषाएं इतनी समर्थ हैं कि इनके द्वारा ज्ञान का सृजन और स्थानान्तरण किया जा सकता है. साथ ही औपचारिक शिक्षा, अर्थव्यवस्था एवं अन्य सामाजिक-राजनीतिक कार्यों के लिए  इसका प्रयोग सुगमतापूर्वक किया जा सकता है.

 जहां तक पूर्व विद्यालयी शिक्षा का प्रश्न  है  मातृभाषा का प्रयोग करते हुए सोचने विचारने की प्रक्रिया का सूत्रपात  करना ही सर्वथा हितकर होगा.  बच्चे की भाषा सीखने की सहजात क्षमता का उपयोग करते हुए सीखने का सक्रिय परिवेश बनाया जा सकता है. बच्चों में पढ़ने की आदत विकसित करने के लिए चित्र वाली किताबों एवं अन्य भाषा शिक्षण सहायक सामग्री का विकास करना आवश्यक होगा.  प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षण को अनिवार्यत: लागू किया जाना ही श्रेयस्कर है.  इस हेतु गणित, विज्ञान आदि विषयों में रोचक  पुस्तकों की रचना एवं अन्य सामग्रियों की उपलब्धता को सुनिश्चित करना होगा. भारतीय भाषाओं में बालोपयोगी साहित्य के लिए राष्ट्रीय मिशन को संचालित कर युद्ध स्तर पर यह कार्य क्रना होगा.  नीति में तो उच्च शिक्षा तक को भारतीय भाषाओं को के माध्यम से संचालित करने के अवसर का विस्तार करने की संस्तुति की गई है. यह बात सर्व विदित है कि चीनी , जापानी , फ्रांसीसी , जर्मन , रूसी , हिब्रू आदि गैरअंग्रेजी भाषा माध्यम में उच्चतम स्तर की शिक्षा दी जा रही है  और शोध किया जा रहा है.  अत: भारतीय भाषाओं में भी उच्च स्तरीय शोध होना चाहिए . नई शिक्षा नीति कला, शिल्प, इतिहास, देशज विज्ञान और लोक विद्या को भी औपचारिक शिक्षा के दायरे में लाने को सोच रही है . इनमें प्रवेश के लिए अपनी भाषा ही उपयुक्त होगी.  भारतीय भाषाओं को व्यावसायिक शिक्षा में यथोचित स्थान देते हुए रोजगार बाजार से जोड़ना होगा.  

jeshoots com 5EKw8Z7CgE4 unsplash edited

अंग्रेजी का पूर्वग्रह गैर अंग्रेजी पृष्ठभूमि वाले विद्यार्थियों के लिए सीखने की प्रक्रिया को अनुवादमूलक और सीखने के प्रति दृष्टिकोण को रटन और पुनरुत्पादन की ओर ले जाता है. सीखने वाले में मौलिकता , सृजनशीलता और आत्मनिर्भरता  के भाव कमजोर पड़ते जाते हैं. यही नहीं भाषाई घन चक्कर में अर्थ का अनर्थ होता रहता है.  अब हम धर्म को ‘ रेलीजन’ और सेकुलरिज्म को ‘धर्मनिरपेक्षता‘ के रूप में धड़ल्ले से प्रयोग में लाते हैं.  ऐसे ही आत्मन ‘सोल’ हो जाता है.  अपनी भाषा के माध्यम से संस्कृति के सौंदर्य का जो स्वाद मिलना संभव  होता  उससे वंचित हो कर  हम कई दृष्टियों से विपन्न होते हैं. इसे ध्यान में रख कर नई शिक्षा नीति में भाषा के प्रति संवेदनशीलता दिखाते हुए प्राथमिक स्तर पर मातृ भाषा को माध्यम रखने का निश्चय किया है. यह एक प्रशंसनीय निर्णय है. भारतीय भाषाओं के प्रति उदासीन दृष्टिकोण से सांस्कृतिक विस्मरण और अपनी पहचान खोने का भी खतरा बढ रहा है. दो तरह की दुनिया के बीच  ( एक अंग्रेजी वाली काल्पनिक और दूसरी अपने घर और पास पड़ोस वाली )  संतुलन बनाना मुश्किल हो जाता है. साथ ही शैक्षिक विकास की दृष्टि से बच्चों की प्रारम्भिक शिक्षा यदि उनकी घर की भाषा या मातृभाषा में दी जाती है तो विषय में प्रवेश सरल और रुचिकर तो होगा ही वह संस्कृति को भी जीवंत रखेगा . उनकी सामाजिक भागीदारी, लगाव  और दायित्व बोध में भी बढोत्तरी होगी .  अपनी  भाषा सीखते हुए और उस माध्यम से अन्य विषयों को सीखना सुखद होगा . मसलन सामाजिक विज्ञान , पर्यावरण और इससे जुड़े विषयों में भारत से परिचय भारत की भाषा में निश्चित ही सरल होगा और सीखने के प्रति चाव पैदा करेगा.  एक अध्ययन  विषय के रूप में अंग्रेजी और अन्य भाषाओं को सीखने की व्यवस्था भिन्न प्रश्न है और विद्यार्थी की परिपक्वता के अनुसार इसकी व्यवस्था होनी चाहिए.

स्कूल , महाविद्यालय और विश्वविद्यालय सभी स्तरों पर भारतीय भाषाओं का अधिकाधिक उपयोग हित कर होगा. शिक्षा के परिसर भाषिक बहुलता के स्वागत के लिए तत्पर होने चाहिए. इसके लिए स्तरीय सामग्री को उपलब्ध कराना और सतत अद्यतन करते रहने की व्यवस्था आवश्यक होगी. इसे समयबद्ध ढंग से युद्ध स्तर पर करना होगा. कहना न होगा कि सभी प्रकार की नौकरी और रोजगार में बिना किसी भेद भाव के भारतीय भाषाओं को स्थान देना आवश्यक है.  अपनी भाषा के प्रयोग से ही स्वराज और स्वायत्तता का मार्ग प्रशस्त होगा. आत्म निर्भर और समर्थ भारत के लिए यह प्रमुख आधार होगा.

Banner Still Hindi

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *