शून्य का प्रवास
लघुकथा
पत्नी बुधिया और पति रामू एक टूटी खाट पर पड़े आपस में बतिया रहे थे।
“बुधिया, सेठ का फोन आया है। फैक्टरी में काम वापस शुरू हो रहा है। टिकट भेजा है, वापस काम पर बुलाया है।”
“अब क्या खाने जाओगे? बेआबरू कर कैसा सड़कों पर धकेल बाहर किया था, भूल गए क्या?” गुस्से से बुधिया बोली।
” बुधिया वो इस करम जली बीमारी का डर ही इतना था कि, मैं घर आने को तड़प गया था। और सेठ का काम भी ठप हो गया था। भूखे कब तक रहता मैं वहां?”
” तो सेठ दो वक्त की रोटी ही दे देता साथ में साग ना सही थोड़ा ढाढ़स ही दे देता। तो कौन जरूरी था कि सामान कंधों पर डालें इस झुलस में पांव जलाते, भूखे प्यासे , सैकड़ों कोस दूर घर आते?” क्रोध से आंखें विस्फारित कर बोली।
“अपन मजदूरों की किस्मत ही ऐसी है रे ! अपने मरने जीने से किसको फर्क पड़ता है। हां, हमें काम नहीं मिलेगा तो संध्या बेला में हमारा चुल्हा जरूर नहीं जल पाएगा।”
“नहीं अब तुम नहीं जाओगे। यहीं रूखी सूखी खा पड़े रहेंगे।”
“नहीं बुधिया जाना तो पड़ेगा ही रे। हम मजदूर तो शुन्य है रे… जिनकी कोई बिसात ही नहीं। जब इन सेठों पूंजी पतियों के साथ जुड़ेंगे, तो उनको जरूर 10 गुना कर देंगे। …..अब यह तो शुन्य का प्रवास था रे, जाना तो पड़ेगा ही।”
जलती कुढ़ती बुधिया पांव पटकते बाहर निकल पड़ी।
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