kisan andolan bharat band edited

मैं किसान कानूनों का समर्थन क्यों नहीं करता हूं

Nikhil Kumar JNU
निखिल कुमार, शोध छात्र, जेएनयू

केंद्र सरकार ने हाल ही में संसद में तीन कृषि विधेयकों को पारित कराया. केंद्र सरकार इन कानूनों के  अनेको फायदे गिना रही है, लेकिन गहराई से विश्लेषण करने के बाद पता चलता है की इन तीनो कानूनों के किसानो पर नकारात्मक प्रभाव होंगे. संक्षेप में इन कानूनों की निम्नलिखित मुख्य आलोचनाएं है जिससे कि किसानों के दीर्घकालिक नुकसान होगे !

पहला, इससे मंडी की व्यवस्था ही खत्म हो जायेगी। क्योंकि अभी तक व्यापारी सिर्फ मंडियों में ही अनाज या धान खरीदने जाते थे जो कि एमएसपी रेट पर मिलता था लेकिन अब व्यापारी मंडी क्यों जाएंगे जब उन्हें मंडी से बाहर ही गेहूं, चावल मिल जाएगा? इससे किसानों को नुकसान होगा, वे मंडी से बाहर ही किसानों से औने पौने दामों पर उनकी फसल खरीद लेंगे और एमएसपी का कोई महत्व नहीं रह जाएगा, 1970 के दशक में एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केटिंग (Regulation) ऐक्ट (APMC Act) के तहत कृषि विपणन समितियां बनी थीं। इन समितियों का उद्देश्य बाजार की अनिश्चितताओं से किसानों को बचाना था। अधिकांश राज्यों में पहले अपने-अपने एपीएमसी कानून थे। लेकिन, केंद्रीय स्तर पर इसका असली मकसद पूरा नहीं हो पाया. मंडी में कार्य करने वाले लाखों व्यक्तियों के जीवन- निर्वाह का क्या होगा ? जैसेकि पंजाब में ही करीब 48,000 आढ़तिये रजिस्टर्ड हैं।

whatsapp banner 1

अब प्रश्न उठता है! कि इन कानूनों का अधिकतर विरोध पंजाब-हरियाणा या पश्चिमी उत्तर प्रदेश में क्यों हो रहा है इसका प्रमुख कारण है यहां पर मंडियों  की संख्या ज्यादा है और एवं किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलता है. वहीं भारत के दूसरे अन्य हिस्सों में किसानों का जबरदस्त शोषण होता है. उदाहरण के तौर पर भारत में सिर्फ 6% क्षेत्र  में ही एमएसपी मिलता है लेकिन इसका सबसे अधिकतम फायदा पंजाब, हरियाणा के किसानों का  होता है यही कारण है कि  पश्चिमी उत्तर प्रदेश बिहार एवं दूसरे राज्य के किसान भी पंजाब, हरियाणा अपने धान और गेहूं बेचने आते हैं. 

बिहार या झारखंड (Bihar & Jharkhand) जैसे राज्यों की बात करें तो किसान कानूनों  (Farmer’s Bill) से वहां के किसानों के जीवन पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा. वहां पहले से ही सरकारी खरीद (Government Purchase) या कृषि मंडी (APMC Mandi) नाम की कोई चीज काम नहीं कर रही है। वहां पहले से ही किसान बिचौलियों या व्यापारियों के पास अपना उत्पाद बेचने को मजबूर हैं। यही कारण है कि उन राज्यों का किसान और अधिक गरीब होता जा रहा है! 

आपको बता दें की बिहार में सन 2006 से ही, इसी प्रकार की व्यवस्था की गई थी,  तब ऐसी आशंका जताई जा रही थी कि बिहार में क्रांतिकारी परिवर्तन होंगे , लेकिन 14 सालों के बाद भी बिहार के किसान गेहूं या धान बेचने के लिए आज भी पंजाब या दिल्ली आते हैं, ये इस बात का उदाहरण है कि यह एक उचित  व्यवस्था नहीं है। 

सबसे पहले, 1950-60 के दशकों से अमेरिका एवं  यूरोप सहित कई देशों में इस प्रकार का कृषि मॉडल लागू किया गया लेकिन वह बुरी तरह असफल साबित हुआ.  70 सालों के बाद अमेरिका और यूरोप में किसानों की हालात बहुत बदतर है। किसानों की आत्महत्या की दर साधारण शहरों में रहने वाले व्यक्तियो काफी अधिक है.  इसके अलावा वहां के किसान सरकारों के ऊपर निर्भर रहते हैं,  यदि अमेरिकी और यूरोपीय सरकार अपने किसानों को सब्सिडी देना बंद कर दे तो वहां का किसान और गरीब होगा लेकिन वह बंद नहीं करते . लेकिन भारत में डब्ल्यूटीओ (WTO)  के दबाव में  सरकारे लगातार सब्सिडी में कटौती कर रही है,  जोकि चिंता का विषय है. 

दूसरा, एसेंशियल कमोडिटीज एक्ट 1955 के हट जाने के बाद अब व्यापारी इन फसलों की  जमाखोरी कर सकेंगे, और जब चाहे महंगाई को नियंत्रित कर सकेंगे एक तरीके से यह पूंजीपतियों के हाथ में अर्थव्यवस्था का नियंत्रित होना है. भारतीय कृषि जनसँख्या 2015-16 के अनुसार, भारत में 80% से अधिक छोटे और मझोले किसान है अर्थात 2 हेक्टेयर से कम भूमि है इससे उनका काफ़ी नुक़सान होगा। क्योंकि भारत में कृषि सिर्फ फायदे नुकसान के लिए नहीं की जाती बल्कि जीवन व्यवसाय एवं जीवन शैली के नजरिए से भी की जाती है.

तीसरा, कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से बड़े बड़े पूंजीपति जमीन खरीदेंगे और किसानों से कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग कराएंगे, इससे वे औने पौने दामों पर किसानों से जमीन लेंगे और अंग्रेजी के अक्षरों में समझौते करेंगे जो कि किसानों को समझ नहीं आता है ऐसे उदाहरण पूरे भारतवर्ष में देखे गए हैं, जहां पर समझौते के नाम पर किसानों का शोषण किया गया है। इसके अलावा इन विधेयकों में जो भूमिहीन किसान है जो दलित समुदाय से आते है और लावणी करते हैं अर्थात किसान की जमीन की कटाई /सिंचाई करते हैं  तो उसका कुछ हिस्सा ले लेते हैं तथा अपना जीवन यापन करते हैं. तो इससे दलितों की स्थिति पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

हमें यहां पर सरकार द्वारा गठित 2015 में शांता कुमार कमेटी का भी जिक्र करना होगा,  उनका खुद कहना है कि पंजाब हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हमें मंडी व्यवस्था में किसी भी प्रकार का दखल नहीं करना चाहिए, यह व्यवस्था इसकी शुरुआत भारत के पूर्वी राज्यों से होनी चाहिए, लेकिन सरकार ने बिना किसी शोध, वैज्ञानिक अवलोकन के बिना ही इसे पूरे भारतवर्ष में लागू कर दिया जोकि इन क्षेत्रों के किसानों के लिए नुकसानदेह होगा. 

इसके अलावा, संविधान की सातवीं अनुसूची में राज्य सूची की 28वीं प्रविष्टि में इसका स्पष्ट उल्लेख है, की कृषि राज्य सूची का विषय है. यह कहता है कि राज्य एपीएमसी कृषि मंडियों को संचालित करता है, इसलिए केंद्र सरकार को उसमें दखल नहीं देना चाहिए।

हालाँकि, भारत सरकार ने संकेत दिया है कि वह इन कानूनों को रोलबैक (वापिस नहीं) नहीं करेगी, लेकिन भारत के विभिन्न हिस्सों में किसान विभिन्न किसान संगठनों का लगातार विरोध हो रहा है. अगर सरकार इन कानूनों को वापस नहीं लेना चाहती तो उसे कम से कम यह सुनिश्चित करना होगा की पूंजीपति वर्ग गरीब किसानों की संपत्ति ना हड़प सके एवं एमएसपी से कम कीमत पर खाद्यान्न नहीं खरीद सके. (डिस्क्लेमर: लेखक निखिल कुमार, जेएनयू के शोध छात्र है यह उनके निजी विचार है.)

यह भी पढ़ें…..

loading…